राजस्थान के मध्यकालीन प्रमुख ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थल
अचलगढ़
आब के निकट
अवस्थित अचलगढ पर्व-मध्यकाल में परमारां की राजधानी रहा है। यहाँ अचलेश्वर
महादेव का प्राचीन मन्दिर है। कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भस्वामी का
मन्दिर यहीं अवस्थित है। अचलेश्वर महादेव मन्दिर के सामन चारण कवि दुरसा आढा की बनवाई स्वयं की पीतल की मूर्ति है। अचलेश्वर पहाड़ी पर अचलगढ़ दुर्ग स्थित है, जिसे राणा कुम्भा ने ही बनवाया था।
अजमेर
आधुनिक राजस्थान के मध्य में स्थित अजमेर नगर की स्थापना 12 वीं शताब्दी में चौहान शासक अजयदव ने की थी। यहाँ के मुख्य स्मारकों में कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा निर्मित ढ़ाई दिन का झौपड़ा, सूफी संत ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह, सोनीजी की नसियाँ (जैन मन्दिर, जिस पर सान का काम किया हुआ है) , अजयराज द्वारा निर्मित तारागढ़ दुर्ग, अकबर द्वारा बनवाया गया किला (मैग्जीन) आदि प्रमुख स्मारक हैं। यह मैग्नीज फोर्ट वर्तमान में संग्रहालय के रूप
में है। यह स्मरण रह कि ख्वाजा साहिब की दरगाह साम्प्रदायिक सद्भाव का
जीवत नमूना है। यहाँ चौहान शासक अर्णा राज (आनाजी) द्वारा निर्मित आनासागर
झील बनी हुई है। इस झील के किनार पर जहाँगीर ने दौलतबाग (सुभाष उद्यान) और शाहजहाँ ने बारहदरी का निर्माण करवाया था।
अलवर
18 वीं शताब्दी ने रावराजा प्रतापसिंह ने अलवर राज्य की स्थापना की थी। अलवर का किला, जो बाला किला के नाम से जाना जाता है, 16 वीं शताब्दी में एक अफगान अधिकारी हसन खां मेवाती ने बनवाया था। अलवर में मूसी महारानी की छतरी है, जो राजा बख्तावरसिंह की पत्नी रानी मसी की स्मृति में निर्मित है। यह छतरी अपनी कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। अलवर का राजकीय
संग्रहालय दर्शनीय है, जहाँ अलवर शैली के चित्र सुरक्षित है।
आबू
अरावली पर्वतमाला के मध्य स्थित आबू सिरोही के निकट स्थित है। अरावली पर्वतमाला का सबसे ऊँचा भाग ‘गुरू शिखर’ है। महाभारत में आब की गणना तीर्थ स्थानां में की गई है। आब अपने देलवाड़ा जैन मन्दिरों के लिए
विख्यात है। यहाँ का विमलशाह द्वारा निर्मित आदिनाथ मन्दिर तथा वास्तुपाल-
तेजपाल द्वारा निर्मित नमिनाथ का मन्दिर उल्लेखनीय है। आबू के दलवाड़ा के जैन मन्दिर अपनी नक्काशी, सुन्दर मीनाकारी एवं पच्चीकारी के लिए
भारतभर में प्रसिद्ध है। इन मन्दिरां का निर्माण 11वीं एव 13वी शताब्दी
में किया गया था। ये मन्दिर श्वेत संगमरमर से निर्मित है। यहाँ श्वेत पत्थर
पर इतनी बारीक खुदाई की गई है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। आब पर्वत का अग्नि कुल के राजपूतों की उत्पत्ति का स्थान बताया गया है।
आमेर
जयपुर से सात मील उत्तर-पर्व में स्थित आमेर ढूँढाड़ राज्य की जयपुर बसन से पर्व तक राजधानी था। दिल्ली-अजमेर मार्ग पर स्थित हान के कारण आमेर का मध्यकाल में बहुत महत्त्व रहा है। कछवाहा वंश की राजधानी आमेर के वैभव का युग मुगल काल से प्रारम्भ होता है। आमेर का किला दुर्ग स्थापत्य कला उत्कृष्ट नमूना है। यहाँ के भव्य प्रासाद एवं मन्दिर हिन्दू एव फारसी शैली के मिश्रित रूप हैं। इसमें बने दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास
(शीशमहल) आदि की कलात्मकता प्रशसनीय है। इस किले में जगतशिरामणि मंदिर और
शिलादेवी मन्दिर बने हुए है। इनका निर्माण मानसिंह के समय हुआ था। मानसिंह शिलादेवी की मूर्ति को बगाल से जीतकर लाया था। आमेर पर्यटन के लिए प्रसिद्ध है।
उदयपुर
महाराणा उदयसिंह ने 16 वीं शताब्दी मे इस शहर की स्थापना की थी। यहाँ के महल विशाल परिसर में अपनी कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। राजमहलां के पास ही 17 वीं शताब्दी का निर्मित जगदीश मन्दिर है। यहाँ की पिछौला झील एव फतह सागर झील मध्यकालीन जल प्रबन्धन के प्रशंसनीय प्रमाण है। उदयपुर को झीलां की नगरी कहा जाता है। आधुनिक काल की माती मगरी पर महाराणा प्रताप की भव्य मूर्ति है, जिसन
स्मारक का रूप ग्रहण कर लिया है। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय द्वारा
निर्मित सहलियां की बाड़ी तथा महाराणा सज्जनसिंह द्वारा बनवाया गुलाब बाग
शहर की शोभा बढ़ाने के लिए पर्याप्त है।
ऋषभदेव (केसरियाजी)
उदयपुर की खरवाड़ा तहसील में स्थित यह स्थान ऋषभदव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। जैन एवं आदिवासी भील अनुयायी इसे समान रूप से पजते हैं। भील इन्हें कालाजी कहत हैं, क्योंकि ऋषभदेव की प्रतिमा काले पत्थर की बनी हुई है। मूर्ति पर श्रद्धालु केसर चढ़ाते हैं और इसका लेप करते हैं, इसलिए इसे केसरियानाथ जी का मंदिर भी कहत हैं। यहाँ प्रतिवर्ष मेला भरता है।
ओसियाँ
जाधपुर जिले में स्थित ओसियाँ पर्वमध्यकालीन मन्दिरों के लिए विख्यात है। यहाँ के जैन एव हिन्दू मन्दिर 9वीं से 12वीं शताब्दियां के मध्य निर्मित है। यहाँ के जैन मन्दिर स्थापत्य के उत्कृष्ट नमून हैं। महावीर स्वामी के मंदिर के तारण द्वार एव स्तम्भों पर जैन धर्म से सम्बन्धित शिल्प अंकन दर्शनीय है। यहाँ के सूर्य मंदिर, सचियामाता का मंदिर आदि उस युग के कला वैभव का स्मरण करात हैं।
करौली
यदुवशी शासक अर्जु नसिंह ने करौली की स्थापना की थी। करौली में महाराजा गापालपाल द्वारा बनवाए गए रंगमहल एवं दीवान-ए-आम
खबसूरत है। यहाँ की सूफी संत कबीरशाह की दरगाह भी स्थापत्य कला का सुन्दर
नमूना है। करौली का मदनमोहन जी का मन्दिर प्रसिद्ध है।
किराडू
बाड़मेर से 32 किमी. दूर स्थित किराडू पर्व- मध्यकालीन मन्दिरां के लिए विख्यात है। यहाँ का सोमेश्वर मन्दिर शिल्पकला के लिए विख्यात है। यह स्थल राजस्थान के खजुराहा के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ कामशास्त्र की भाव भगिमा युक्त मूर्तियाँ शिल्पकला की दृष्टि से बे जो ड़ है।
किशनगढ़
अजमेर जिले में जयपुर मार्ग पर स्थित किशनगढ़ की स्थापना 1611 ई. में जाधपुर के शासक उदयसिंह के पुत्र किशनसिंह ने की थी। किशनगढ़ अपनी विशिष्ट चित्रकला शैली के लिए प्रसिद्ध है।
केशवरायपाटन
बूँदी जिले में चम्बल नदी के किनारे स्थित केशवरायपाटन में बूंदी नरश शत्रुशाल द्वारा 17वीं शताब्दी का निर्मित विशाल केशव (विष्णु) मन्दिर है। यहाँ पर जैनियों का तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है।
कोटा
कोटा की स्थापना 13 वीं शताब्दी में बूंदी के शासक समरसी के पुत्र जैतसी ने की थी। उसन कोटा के स्थानीय शासक काटिया भील को परास्त कर उसके नाम से कोटा की स्थापना की। शाहजहाँ के फरमान से सत्रहवी शताब्दी के प्रारम्भ में बूंदी से अलग हाकर कोटा स्वतन्त्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। 1857 की क्रांति के दौरान कोटा राज्य के क्रातिकारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। कोटा के क्षार बाग की छतरियाँ राजपत स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने है। यहाँ का महाराव माधोसिंह संग्रहालय एवं राजकीय ब्रज विलास संग्रहालय कोटा चित्र शैली एव यहाँ के शासकों की कलात्मक अभिरुचि का प्रदर्शित करत है। कोटा में भगवान मथुराधीश का मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ है एव वल्लभ सम्प्रदाय की पीठ है। कोटा का दशहरा मेला भारत प्रसिद्ध है।
कौलवी
झालावाड़ जिले में डग कस्बे के समीप स्थित कौलवी की गुफाएँ बौद्ध विहारों के लिए प्रसिद्ध है। ये विहार 5वी से 7वीं शताब्दी के मध्य निर्मित माने जात है। ये गुफाए एक पहाड़ी पर स्थित हैं चट्टानं काटकर बनायी गई हैं।
खानवा
भरतपुर जिले में स्थित खानवा मेवाड़ के महाराणा सांगा और बाबर के मध्य हुए युद्ध (1527) के लिए विख्यात है। खानवा के युद्ध में सांगा की हार ने राजपूतां को दिल्ली की गद्दी पर बैठने का स्वप्न नष्ट कर दिया और मुगल वश की स्थापना का मजबत कर दिया।
गलियाकोट
डूंगरपुर जिले में माही नदी के किनार स्थित गलियाकाट वर्तमान में दाऊदी बाहरा सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ संत सैय्यद फख़रुद्दीन की दरगाह स्थित है, जहाँ प्रतिवर्ष इनकी याद में उर्स का मेला भरता है।
गोगामेड़ी
हनुमानगढ़ जिले के नोहर तहसील में स्थित गागामेड़ी लाक देवता गोगाजी का प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहाँ प्रतिवर्ष उनके सम्मान में एक पशु मेले का आयाजन होता है। राजस्थान में गोगाजी सर्पों के लोकदवता के रूप में प्रसिद्ध है। हिन्द इन्हें गागाजी तथा मुसलमान गागा पीर के नाम से पजत हैं।
चावण्ड
उदयपुर से ऋषभदेव जाने वाली सड़क पर अरावली पहाड़ियां के मध्य ‘चावण्ड’ गाँव बसा हुआ है। महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् चावण्ड का अपनी राजधानी बनाया था। प्रताप की मृत्यु भी 1597 में चावण्ड में हुई थी।
चित्तौड़गढ
यह नगर अपने दुर्ग के नाम
से अधिक जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण
चित्रागद मौर्य ने करवाया था। समय-समय पर चित्तौड़ दुर्ग का विस्तार होता
रहा है। चित्तौड़ दुर्ग को दुर्गों का सिरमौर कहा गया है। इसके बार में कहावत है -‘गढ़ तो चित्तौड़गढ, बाकी सब गढैया’। चित्तौड़ के शासकों ने तुर्को एव मुगलां से इतिहास प्रसिद्ध संघर्ष किया। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में राणा कुम्भा द्वारा बनवाये अनेक स्मारक हैं, जिनमें विजय स्तम्भ, कुम्भश्याम मन्दिर, श्रृंगार चँवरी, कुम्भा का महल आदि शामिल हैं। दुर्ग में रानी पद्मिनी का महल, जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित कीर्ति स्तम्भ, जयमल-पत्ता के महल, मीरा मन्दिर, रैदास की छतरी, तुलजा भवानी मन्दिर आदि अपन कलात्मक एव ऐतिहासिक महत्व के कारण प्रसिद्ध हैं।
जयपुर
भारत का पेरिस एवं गुलाबी नगर नाम से प्रसिद्ध जयपुर की स्थापना 1727 में सवाई जयसिंह के द्वारा की गई थी। कछवाहा राजाआं की इस राजधानी का महत्व अपने स्थापना काल से ही रहा है। यहाँ के स्थापत्य में राजपूत एव मुगल स्थापत्य का मिश्रण दखा जो सकता है। यहाँ का सिटी पैलेस जयपुर के राजपरिवार का निवास स्थल रहा है। सिटी पैलेस के पास ही गोविन्ददेव जी का मन्दिर है, जो सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित है। सवाई जयसिंह द्वारा स्थापित वैधशाला ‘जन्तर-मन्तर’ का विशष महत्व है। यहाँ स्थापित सम्राट यंत्र विश्व की सबसे बड़ी सौर घड़ी मानी जाती है। नाहरगढ़ किला, हवामहल, रामनिवास बाग, अल्बर्ट हॉल संग्रहालय आदि दर्शनीय एव ऐतिहासिक स्थल हैं।
जालौर
ऐसा माना जाता है कि जालौर (जाबालिपुर) प्राचीनकाल में महर्षि जाबालि की तपाभूमि था। जालौर के प्रसिद्ध शासक कान्हड़दव ने अलाउद्दीन खिलजी से लम्बे समय तक लोहा लिया था। जालौर के सुवर्णगिरि दुर्ग का निर्माण परमार राजपतोंं ने करवाया था। दुर्ग में वैष्णव एव जैन मंदिर तथा सूफी संत मलिकशाह का मकबरा है।
जैसलमेर
भाटी
राजपतों की राजधानी जैसलमेर की स्थापना 12 वीं शताब्दी में महारावल जैसल
ने की थी। जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरां से निर्मित्त हाने के कारण ‘सानार किला’ कहलाता है। दुर्ग में अनेक वैष्णव एवं जैन मन्दिर बन हैं, जो अपनी शिल्पकला की उत्कृष्टता के कारण विख्यात है। जैसलमेर का जिनभद्र ज्ञान भण्डार प्राचीन ताड़पत्रों एवं पाण्डुलिपियां तथा कई भाषाआं के ग्रंथों के लिए प्रसिद्ध है। जैसलमेर की हवेलियां की वजह से विशेष पहचान है। यहाँ की पटवों की हवेलियाँ, सालिमसिंह की हवेली तथा नथमल की हवेली अपने झरोखों, दरवाजों व जालियों की नक्काशीयुक्त शिल्प के लिए पहचानी जाती हैं। जैसलमेर शासकों के निवास बादल निवास व जवाहर विलास शिल्पकला के ‘बेजाड़ नमून है। रावत गढ़सी सिंह द्वारा निर्मित्त मध्यकालीन गढ़सीसर सरोवर अपन कलात्मक प्रवेश द्वार एव छतरियों के लिए प्रसिद्ध है।
जो धपुर
इस नगर की स्थापना 1459 में राव जो धा ने की थी। जो धपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण राव जाधा ने शुरू किया, जिसमें कालान्तर में विस्तार हाता रहा है। इस दुर्ग को मयूर ध्वज के नाम से भी जाना जाता है। इस दुर्ग में फूल महल, माती महल, चामुण्डा दवी का मन्दिर दर्शनीय हैं। दुर्ग के पास ही जसवन्त थड़ा है,
जो महाराजा जसवन्त सिंह द्वितीय की स्मृति में बनवाया गया था। यहाँ आधुनिक
काल का उम्मेद भवन (छीतर पैलेस) अपनी विशालता एव कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। जाधपुर सूर्य नगरी के नाम से विख्यात है।
झालरापाटन
झालावाड़ शहर से 4 मील दर स्थित झालरापाटन कस्बा कोटा राज्य के प्रधानमंत्री झाला जालिमसिंह ने बसाया था। यहाँ पहले 108 मन्दिर थे, जिनकी झालरां एव घण्टियां के कारण कस्बे का नाम झालरापाटन रखा गया। यहाँ का मध्यकालीन सूर्य मन्दिर प्रसिद्ध है, जो वर्तमान में सात सहलियां के मन्दिर के नाम से प्रख्यात है। यहाँ का शांतिनाथ का जैन मन्दिर विशाल एव भव्य है, जो 11वीं शताब्दी का निर्मित है।
टोंक
17 वी शताब्दी में एक ब्राह्मण ने 12 ग्रामों को मिलाकर टोंक की स्थापना की। 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमीर खा पिण्डारी ने टांक रियासत की स्थापना की। टोंक की सुनहरी कोठी पच्चीकारी एवं मीनाकारी के लिए प्रसिद्ध है। टोंक के अरबी एवं फारसी शाध संस्थान, जो आधुनिक काल का है, में हस्तलिखित उर्दू , अरबी-फारसी ग्रंथां का विशाल संग्रह है।
डूँगरपुर
रावल
वीर सिंह ने 14 वीं शताब्दी में डूँगरपुर की स्थापना की थी। डूँगरपुर को
बागड़ राज्य की राजधानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। डूँगरपुर अपने
मध्यकालीन मन्दिरों, हरे रग के पत्थर की मूर्तियों आदि के कारण प्रसिद्ध रहा है। यहाँ का गप सागर जलाशय अपन स्थापत्य के कारण आकर्षित करता है। यहाँ का उदयविलास पैलेस सफेद संगमरमर एव नीले पत्थर से बना है, जो नक्काशी तथा झरोखां से सुसज्जित है। आदिवासियों से बाहुल्य डूँगरपुर में परम्परागत जन-जीवन की झांकी दखन का मिलती है।
डीग
भरतपुर जिले में डीग जाट नरेशां के भव्य महलों के लिए विख्यात है। भरतपुर शासक सूरजमल जाट ने 18वी शताब्दी में यहाँ सुन्दर राजप्रासाद बनवाये। डीग कस्बे के चारों ओर मिट्टी का बना किला है, जिसे गापालगढ़ कहते है।
नागौर
नागौर का प्राचीन नाम अहिछत्रपुर था। यहाँ समय-समय पर नागवंश, परमारवश एव मुगल वंश का शासन रहा। अपन विशालकाय परकोटां व प्रभावशाली द्वारों के कारण नागौर राजपतों के अद्भुत नगरों में से एक है। ऐतिहासिक नागौर किले में शानदार महल, मन्दिर एव भव्य इमारतं है। नागौर का दुर्ग दोहरे परकोटे से घिरा हुआ है। यह किला राव अमरसिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं के कारण इतिहास प्रसिद्ध है। नागौर के ऐतिहासिक
झंडा तालाब पर बनी 16 कलात्मक खम्भों से निर्मित्त अमरसिंह राठौड़ की छतरी
एव कलात्मक बावड़ी दर्शनीय है। यहाँ सूफी संत हमीदुद्दीन नागौरी की दरगाह
हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के रूप में पहचानी जाती है। नागौर का पशु मेला राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा पशु मेला है।
नाथद्वारा
राजसमंद जिले में बनास नदी के किनार बसे नाथद्वारा पूरे दश में श्रीनाथजी के वैष्णव मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का यह प्रमुख तीर्थस्थल है। यहाँ कृष्ण की उपासना उसके बालरूप में की जाती है। औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति के कारण श्रीनाथजी की मूर्ति मथुरा से सिहाड़ ग्राम (वर्तमान नाथद्वारा) लाई गई, जो महाराणा राजसिंह के प्रयासों से नाथद्वारा में प्रतिष्ठापित की गई। चढ़ावे की दृष्टि से यह राजस्थान का सबसे सम्पन्न तीर्थस्थल है। पिछवाई पेंटिंग और मीनाकारी के लिए नाथद्वारा प्रसिद्ध है।
पुष्कर
अजमेर के निकट पुष्कर हिन्दुआं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। पद्म पुराण में भी इसकी महिमा का बखान किया गया है। पुष्करताल के घाटां पर स्नान करना अत्यन्त पुण्य का काम समझा जाता है। तीर्थराज पुष्कर में प्राचीनतम चतुर्मु खी ब्रह्मा मन्दिर है। यहाँ के अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों में रंगनाथ मन्दिर, सावित्री मन्दिर, वराह मन्दिर आदि धार्मिक महत्त्व के हैं। पुष्कर में प्रतिवर्ष कार्तिक महीने में मेले का आयोजन हाता है। यह मेला ने केवल विभिन्न पशुओं की खरीद-फराख्त का माध्यम है बल्कि विदेशी पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र माना जाता है। वर्तमान में पुष्कर को
अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त है।
बूंदी
राव दवा ने 13वीं शताब्दी में बूंदी राज्य की स्थापना की थी। बूंदी के तारागढ़ दुर्ग का निर्माण राव राजा बरसिंह ने 14वीं शताब्दी में शुरू करवाया था। बूंदी के शासक शत्रुसाल हाड़ा मुगल उत्तराधिकार यद्ध के दौरान धरमत की लड़ाई (1658) में मारा गया। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में नवल सागर, चौरासी खम्भों की छतरी, रानीजी की बावड़ी, जैत सागर , फूल सागर आदि है। बूंदी
अपनी विशिष्ट चित्रकला शैली के लिए विख्यात है। बूंदी एक ऐसा शहर है, जिसके पास समृद्ध विरासत है और आज भी मध्यकालीन शहर की झलक देता है।
बयाना
भरतपुर जिले में स्थित बयाना का उल्लेख 13वी-14वीं शताब्दी के इब्नेबतूता, जियाउद्दीन बरनी जैसे लेखकां ने भी किया है। आगरा के निकट होन के कारण बयाना का सामरिक महत्त्व था। मध्यकाल में बयाना नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था। बयाना से बड़ी संख्या में गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं, जो तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश डालती हैं। राणा सांगा एव बाबर के मध्य खानवा की लड़ाई हुई थी, जो बयाना के निकट ही है।
बाड़ोली
चित्तौड़गढ़ जिले में रावतभाटा के निकट बाड़ोली हिन्द मन्दिरां के लिए प्रसिद्ध है। ये मन्दिर गणश, विष्णु, शिव, महिशासुर मर्दिनी आदि को समर्पित है। इन मन्दिरों से लोगां का सबसे पहले परिचय कर्नल जेम्स टॉड ने कराया था।
बीकानेर
राव बीका द्वारा 15 वीं शताब्दी में इस शहर की स्थापना की गई थी। यहाँ के 16 वी शताब्दी के शासक रायसिंह ने बीकानर के जूनागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। यह दुर्ग अपन स्थापत्य कला एव चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। बीकानर शहर प्राचीर से घिरा हुआ हैं, जिसमें पाँच दरवाजे बने हुए है। लाल और सफेद पत्थरों से निर्मित्त रतन बिहारी जी का मन्दिर, लालगढ़ पैलेस, पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक जैन मन्दिर आदि कलात्मक एवं दर्शनीय हैं। बीकानर का अनूप पुस्तकालय पाण्डुलिपियों एव पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध है।
भरतपुर
राजस्थान का पूर्वी प्रवेश द्वार भरतपुर की स्थापना 18वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जाट शासक बदनसिंह ने की थी। उसके उत्तराधिकारी
सूरजमल ने भरतपुर राज्य का विस्तार किया और इसे शानदार महलां से अलकृत
किया। मिट्टी की मोटी दाहरी प्राचीरों से घिरा भरतपुर का किला अपनी अभद्यता के कारण लाहागढ़ दुर्ग’ के नाम से प्रख्यात है। भरतपुर सांस्कृतिक दृष्टि से पर्वी राजस्थान का एक समृद्ध नगर है। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में गंगा मन्दिर, लक्ष्मण मन्दिर, जामा मस्जिद, केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान आदि हैं।
भीनमाल
जालौर जिले में स्थित भीनमाल का सम्बन्ध प्राचीन इतिहास से रहा है। संस्कृत के प्रख्यात कवि माघ ने अपन ग्रंथ शिशुपाल वध की रचना यही की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भीनमाल की यात्रा की थी।
मण्डावा
झुँझुनूं में मण्डावा शखावाटी अंचल का सबसे महत्वपर्ण कस्बा है। यहाँ बड़ी संख्या में पयटक आत है। इस कस्बे के चारां ओर रेगिस्तानी टीलें है। यहाँ स्थित सेठां की हवेलियाँ, उनका स्थापत्य तथा उनमें बन भित्ति चित्र पर्यटन एव कला की दृष्टि से महत्वपर्ण है। गायनका की हवेली, लाडियां की हवेली आदि हवेली चित्रां के लिए प्रसिद्ध है।
मण्डौर
जाधपुर के पास स्थित मण्डौर पर्व में मारवाड़ की राजधानी रहा है। मण्डौर दुर्ग के अन्दर विष्णु और जैन मन्दिरों के खण्डहर हैं। यहाँ स्थित मण्डौर उद्यान में मण्डौर संग्रहालय, जनाना महल तथा राजाआं के देवल (स्मारक) बन हुए हैं। इस उद्यान में राजा अजीतसिंह तथा राजा अभयसिंह ने दवताआं की साल (बरामदा) का निर्माण करवाया था।
महनसर
झुंझुनू में महनसर पाद्दारों की सोने की दुकान के लिए प्रसिद्ध है, जो हरचंद पोद्दार ने बनवाई थी। यहाँ के भित्ति चित्रों में मुख्यतः श्रीराम और कृष्ण की लीलाआं का सुन्दर अंकन हुआ है। यह दुकान, जो मूलतः एक इमारत है पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। महनसर में सेठों की अनक हवेलियाँ है, जो भित्ति चित्रां एव हवेली स्थायत्य के लिए प्रसिद्ध है। महनसर की एक अन्य इमारत उल्लेखनीय है, जिसे तोलाराम जी का कमरा कहा जाता है। इस दा मंजिला इमारत को देखन के लिए लोग दूर-दूर से आत है। शेखावाटी अंचल के लाकगीतां में इस इमारत की सुन्दरता का वर्णन मिलता है।
रणकपुर
पाली जिले में स्थित रणकपुर जैन मन्दिरों के लिए विख्यात है। यहाँ का मुख्य मन्दिर प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) का है। इनकी चतुर्मु खी प्रतिमा होन के कारण इसे चौमुखा मन्दिर भी कहत है। इस मन्दिर का निर्माण महाराणा कुम्भा के शासनकाल
में सेठ धरणशाह ने 15 वीं शताब्दी में करवाया था। इस मन्दिर में 1444
स्तम्भ हैं। इस मन्दिर का शिल्पी दपाक था। इस मन्दिर में राजस्थान की
जैन कला एव धार्मिक परम्परा का अपर्व प्रदर्शन हुआ है। एक कला मर्मज्ञ की
टिप्पणी है कि ऐसा जटिल एव कलापूर्ण मन्दिर मेर देखन में नहीं आया।
रामदेवरा
जैसलमेर जिले की पोकरण तहसील में अवस्थित ‘रामदवरा’
लाक संत रामदवजी का समाधि स्थल है। यहाँ रामदेवजी का भव्य मन्दिर बना हुआ
है। यहाँ भाद्रपद शुक्ला द्वितीय से एकादशी तक मेला भरता है, जिसमें भारत के कौने-कौने से श्रद्धालु आते है। यह मेला साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए प्रसिद्ध है।
सवाई माधोपुर
इस शहर की स्थापना जयपुर के शासक
सवाई माधोसिंह ने की थी। यहाँ का रणथम्भौर का किला हम्मीर चौहान की वीरता
का साक्षी रहा है। रणथम्भौर में 1301 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के दौरान राजपत स्त्रियों द्वारा किया गया जौहर राजस्थान के पहले साके के रूप में विख्यात है। दुर्ग में त्रिनेत्र गणशजी का मदिर स्थित है। रणथम्भौर दुर्ग की प्रमुख विशषता
है कि इस किले में बैठकर दूर-दूर तक दखा जो सकता है परन्तु शत्रु किले का
निकट आने पर ही दख सकता है। यहाँ का रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान (बाघ
अभयारण्य) पर्यटकां के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
हल्दीघाटी
राजसमंद जिले में स्थित ‘हल्दीघाटी’ गांव महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के मध्य लडें युद्ध (18 जून, 1576) के लिए प्रसिद्ध है। यह युद्ध अनिर्णायक रहा, परन्तु
अकबर जैसा साम्राज्यवादी शासक भी प्रताप की संघर्श एव स्वतन्त्रता की
प्रवृत्ति पर अंकुष नहीं लगा सका। युद्धस्थली का राष्ट्रीय स्मारक घोषित
किया गया है किंतु दुर्भाग्य से इसके मूल स्वरूप को यथावत् रखन में प्रशासन असफल रहा है। इतिहास के जागरूक छात्रों का चाहिये कि वे स्मारकों के संरक्षण में सहयाग प्रदान करं।
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