भारत छोड़ों आन्दोलन और राजस्थान
भारत छोड़ो आन्दोलन (प्रस्ताव 8 अगस्त, शुरुआत 9 अगस्त, 1942) के ‘करो या मरो’ की घोषणा के साथ ही राजस्थान में भी गांधीजी की गिरफ्तारी का विरोध होने लगा। जगह-जगह जुलूस, सभाओं
और हड़तालों का आयोजन होने लगा। विद्यार्थी अपनी शिक्षण संस्थानों से बाहर
आ गये और आन्दोलन में कूद पड़े। स्थान-स्थान पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी, तार और टेलीफोन के तार काट दिये। स्थानीय जनता ने समानान्तर सरकारें स्थापित कर लीं। उधर जवाब में ब्रिटिश सरकार ने भारी दमनचक्र चलाया। जगह-जगह पुलिस ने गोलियाँ चलाई। कई मारे गये, हजारों गिरफ्तार किये गये। देश की आजादी की इस बड़ी लड़ाई में राजस्थान ने भी कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दिया।
जोधपुर राज्य में सत्याग्रह का दौर चल पड़ा। जेल जाने वालों में मथुरादास माथुर, देवनारायण व्यास, गणेशीलाल व्यास, सुमनेश जोशी, अचलेश्वर प्रसाद शर्मा, छगनराज चौपासनीवाला, स्वामी कृष्णानंद, द्वारका
प्रसाद पुरोहित आदि थे। जोधपुर में विद्यार्थियों ने बम बनाकर सरकारी
सम्पत्ति को नष्ट किया। किन्तु राज्य सरकार के दमन के कारण आन्दोलन कुछ
समय के लिए शिथिल पड़ गया। अनेक लोगों ने जयनारायण व्यास पर आन्दोलन समाप्त
करने का दवाब डाला, परन्तु वे अडिग रहे। राजस्थान में
1942 के आन्दोलन में जोधपुर राज्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस
आन्दोलन में लगभग 400 व्यक्ति जेल में गए। महिलाओं में श्रीमती गोरजा देवी
जोशी, श्रीमती सावित्री देवी भाटी, श्रीमती सिरेकंवल व्यास, श्रीमती राजकौर व्यास आदि ने अपनी गिरफ्तारियाँ दी।
माणिक्यलाल वर्मा रियासती नेताओं की बैठक में भाग लेकर इंदौर आये तो उनसे
पूछा गया कि भारत छोड़ो आन्दोलन के संदर्भ में मेवाड़ की क्या भूमिका रहेगी, तो उन्होंने उत्तर दिया, ”भाई हम तो मेवाड़ी हैं, हर बार हर-हर महादेव बोलते आये हैं, इस बार भी बोलेंगे।“
स्पष्ट था कि भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रति मेवाड़ का क्या रूख था। बम्बई
से लौटकर उन्होंने मेवाड़ के महाराणा को ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद
करने का 20 अगस्त, 1942
को अल्टीमेटम दिया। परन्तु महाराणा ने इसे महत्त्व नहीं दिया। दूसरे दिन
माणिक्यलाल गिरफ्तार कर लिये गये। उदयपुर में काम-काज ठप्प हो गया। इसके
साथ ही प्रजामण्डल के कार्यकर्त्ता और सहयोगियों की गिरफ्तारियों का
सिलसिला शुरू हुआ। उदयपुर के भूरेलाल बया, बलवन्त सिंह मेहता, मोहनलाल सुखाड़िया, मोतीलाल तेजावत, शिवचरण माथुर, हीरालाल कोठारी, प्यारचंद विश्नोई, रोशनलाल
बोर्दिया आदि गिरफ्तार हुए। उदयपुर में महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं।
माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी नारायणदेवी वर्मा अपने 6 माह के पुत्र को गोद
में लिये जेल में गयी। प्यारचंद विश्नोई की धर्मपत्नी भगवती देवी भी जेल
गयी। आन्दोलन के दौरान उदयपुर में महाराणा कॉलेज और अन्य शिक्षण संस्थाएँ
कई दिनों तक बन्द रहीं। लगभग 600 छात्र गिरफ्तार किये गये। मेवाड़ के
संघर्ष का दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र नाथद्वारा था। नाथद्वारा में हड़ताले
और जुलूसों की धूम मच गयी। नाथद्वारा के अतिरिक्त भीलवाड़ा, चित्तौड़ भी संघर्ष के केन्द्र थे। भीलवाड़ा के रमेश चन्द्र व्यास, जो मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम सत्याग्रही थे, को आन्दोलन प्रारम्भ होते ही गिरफ्तार कर लिया। मेवाड़ में आन्दोलन को रोका नहीं जा सका, इसका प्रशासन को खेद रहा।
जयपुर राज्य की 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में भूमिका विवादास्पद रही।
जयपुर प्रजामण्डल का एक वर्ग भारत छोड़ों आन्दोलन से अलग नहीं रहना चाहता
था। इनमें बाबा हरिश्चन्द, रामकरण जोशी, दौलतमल भण्डारी आदि थे। ये लोग पं0 हीरालाल शास्त्री से मिले। हीरालाल शास्त्री ने 17 अगस्त, 1942
की शाम को जयपुर में आयोजित सार्वजनिक सभा में आन्दोलन की घोषणा का
आश्वासन दिया। यद्यपि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सभा हुई, परन्तु
हीरालाल शास्त्री ने आन्दोलन की घोषणा करने के स्थान पर सरकार के साथ हुई
समझौता वार्ता पर प्रकाश डाला। हीरालाल शास्त्री ने ऐसा सम्भवतः इसलिए किया
कि उनके जयपुर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल से मैत्रीपूर्ण
सम्बन्ध थे तथा जयपुर महाराजा के रवैये एवं आश्वासन से जयपुर प्रजामण्डल
सन्तुष्ट था। जयपुर राज्य के भीतर और बाहर हीरालाल शास्त्री की आलोचना की
गई। बाबा हरिश्चन्द और उनके सहयोगियों ने एक नया संगठन ‘ आजाद मोर्चा ’
की स्थापना कर आन्दोलन चलाया। इस मोर्चे का कार्यालय गुलाबचन्द कासलीवाल
के घर स्थित था। जयपुर के छात्रों ने शिक्षण संस्थाओं में हड़ताल करवा दी।
कोटा राज्य प्रजामण्डल के नेता पं. अभिन्नहरि को बम्बई से लौटते ही 13
अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामण्डल के अध्यक्ष मोतीलाल जैन ने
महाराजा को 17 अगस्त को अल्टीमेटम दिया कि वे शीघ्र ही अंग्रेजों से
सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप सरकार ने प्रजामण्डल के कई
कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इनमें शम्भूदयाल सक्सेना, बेणीमाधव शर्मा, मोतीलाल जैन, हीरालाल
जैन आदि थे। उक्त कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारी के बाद नाथूलाल जैन ने
आन्दोलन की बागड़ोर सम्भाली। इस आन्दोलन में कोटा के विद्यार्थियों का
उत्साह देखते ही बनता था। विद्यार्थियों ने पुलिस को बेरकों में बन्द कर
रामपुरा शहर कोतवाली पर अधिकार (14-16 अगस्त,1942)
कर उस पर तिरंगा फहरा दिया। जनता ने नगर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया।
लगभग 2 सप्ताह बाद जनता ने महाराव के इस आश्वासन पर कि सरकार दमन सहारा
नहीं लेगी, शासन पुनः महाराव को सौंप दिया। गिरफ्तार कार्यकर्त्ता रिहा कर दिये गये।
भरतपुर में भी भारत छोड़ों आन्दोलन की चिंगारी फैल गई। भरतपुर राज्य प्रजा परिषद् के कार्यकर्त्ता मास्टर आदित्येन्द्र, युगलकिशोर चतुर्वे दी, जगपतिसिंह, रेवतीशरण, हुक्मचन्द, गौरीशंकर मित्तल, रमेश शर्मा आदि नेता गिरफ्तार कर लिये गये। इसी समय दो युवकों ने डाकखानों और रेलवे स्टेशनों को 28तोड़-फोड़ की योजना बनाई, परन्तु
वे पकड़े गये। आन्दोलन की प्रगति के दौरान ही राज्य में बाढ़ आ गयी। अतः
प्रजा परिषद् ने इस प्राकृतिक विपदा को ध्यान में रखते हुए अपना आन्दोलन
स्थगित कर राहत कार्यों मे लगने का निर्णय लिया। शीघ्र ही सरकार से
आन्दोलनकारियों की समझौता वार्ता प्रारम्भ हुई। वार्ता के आधार पर राजनीतिक
कैदियों को रिहा कर दिया गया। सरकार ने निर्वाचित सदस्यों के बहुमत वाली
विधानसभा बनाना स्वीकार कर लिया।
शाहपुरा
राज्य प्रजामण्डल ने भारत छोड़ों आन्दोलन शुरू होने के साथ ही राज्य को
अल्टीमेटम दिया कि वे अंग्रेजो से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप
प्रजामण्डल के कार्यकर्त्ता रमेश चन्द्र ओझा, लादूराम व्यास, लक्ष्मीनारायण कौटिया गिरफ्तार कर लिये गये। शाहपुरा के गोकुल लाल असावा पहले ही अजमेर में गिरफ्तार कर लिये गये थे।
अजमेर
में कांग्रेस के आह्वान के फलस्वरूप भारत छोड़ों आन्दोलन का प्रभाव पड़ा।
कई व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें बालकृष्ण कौल, हरिमाऊ उपाध्यक्ष, रामनारायण चौधरी, मुकुट बिहारी भार्गव, अम्बालाल माथुर, मौलाना अब्दुल गफूर, शोभालाल
गुप्त आदि थे। प्रकाशचन्द ने इस आन्दोजन के संदर्भ में अनेक गीतों को रचकर
प्रजा को नैतिक बल दिया। जेलों के कुप्रबन्ध के विरोध में बालकृष्ण कौल ने
भूख हड़ताल कर दी।
बीकानेर
में भारत छोड़ो आन्दोलन का विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। बीकानेर
राज्य प्रजा परिषद् के नेता रघुवरदयाल गोयल को पहले से ही राज्य से
निर्वासित कर रखा था। बाद में गोयल के साथी गंगादास कौशिक ओर दाऊदयाल
आचार्य को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हीं दिनों नेमीचन्द आँचलिया ने अजमेर
से प्रकाशित एक साप्ताहिक में लेख लिखा, जिसमें
बीकानेर राज्य में चल रहे दमन कार्यों की निंदा की गई। राज्य सरकार ने
आँचलिया को 7 वर्ष का कठोर कारावास का दण्ड दिया। राज्य
में
तिरंगा झण्डा फहराना अपराध माना जाता था। अतः राज्य में कार्यकर्त्ताओं ने
झण्डा सत्याग्रह शुरू कर भारत छोड़ों आन्दोलन में अपना योगदान दिया।
अलवर, डूँगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, झालावाड़
आदि राज्यों में भी भारत छोड़ो आन्दोलन की आग फैली। सार्वजनिक सभाएँ कर
देश में अंग्रेजी शासन का विरोध किया गया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियाँ
हुई। हड़तालें हुई। जुलुस निकाले गये।
सिंहावलोकन
रियासतों में जन आन्दोलनों के दौरान लोगों को अनेक प्रकार के जुल्मों एवं यातनाओं का शिकार होना पड़ा। किसान आन्दोलनों, जनजातीय
आन्दोलनों आदि ने राष्ट्रीय जाग्रति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ये स्वस्फूर्त आन्दोलन थे। इनसे सामन्ती व्यवस्था की कमजोरियाँ उजागर
हुईं। यद्यपि इन आन्दोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था, परन्तु निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज के स्वर बहुत तेज हो गये,जिससे तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को आलोचना का शिकार होना पड़ा। यदि आजादी के पश्चात्
राजतन्त्र तथा सामन्त प्रथा का अवसान हुआ, तो
इसमें इन आन्दोलनों की भूमिका को ओझल नहीं किया जा सकता है। अनेक
देशभक्तों को प्राणों की आहुति देनी पड़ी। शहीद बालमुकुन्द बिस्सा, सागरमल
गोपा आदि का बलिदान प्रेरणा के स्रोत बने। प्रजामण्डल आन्दोलनों से
राष्ट्रीय आन्दोलन को सम्बल मिला। प्रजामण्डलों ने अपने रचनात्मक कार्यों
के अर्न्तत सामाजिक सुधार, शिक्षा का प्रसार, बेगार प्रथा के उन्मूलन एवं अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये। यह कहना उचित नहीं है कि राजस्थान में जन-आन्दोलन केवल संवैधानिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए था, स्वतन्त्रता के लिए नहीं। डॉ. एम.एस. जैन ने उचित ही लिखा है, ”स्वतन्त्रता संघर्ष केवल बाह्य नियंत्रण के विरुद्ध ही नहीं होता, बल्कि निरंकुश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष भी इसी श्रेणी में आते हैं।“ चूंकि रियासती जनता दोहरी गुलामी झेल रही थी, अतः उसके लिए संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती थी।
रियासतों में शासकों का रवैया इतना दमनकारी था कि खादी प्रचार, स्वदेशी
शिक्षण संस्थाओं जैसे रचनात्मक कार्यों को भी अनेक रियासतों में
प्रतिबन्धित कर दिया गया। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध होने के कारण जन
चेतना के व्यापक प्रसार में अड़चने आयी। ऐसी कठिन परिस्थितियों में लोक
संस्थाओं की भागीदारी कठिन थी। जब तक कांग्रेस ने अपने हरिपुरा अधिवेशन
(1938) में देशी रियासतों में चल रहे आन्दोलनों को समर्थन नहीं दिया, तब तक राजस्थान की
रियासतों में जन आन्दोलन को व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। हरिपुरा अधिवेशन
के पश्चात् रियासती आन्दोलन राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गया।
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