भारतीय स्थापत्य कला और मूर्तिकला
भारत में स्थापत्य व वास्तुकला की उत्पत्ति हड़प्पा काल से माना जाता है। स्थापत्य व वास्तुकला के दृष्टिकोण से हड़प्पा संस्कृति तत्कालीन संस्कृतियों से काफी ज्यादा आगे थी। भारतीय स्थापत्य एवं वास्तुकला की सबसे खास बात यह है कि इतने लंबे समय के बावजूद इसमें एक निरंतरता के दर्शन मिलते हैं। इस मामले में भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से इतर है।
सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता का काल 3500-1500 ई.पू. तक माना जाता है। इसकी गिनती विश्व की चार सबसे पुरानी सभ्यताओं में किया जाता है। हड़प्पा की नगर योजना इसका एक जीवंत साक्ष्य है। नगर योजना इस तरह की थी कि सड़केें एक-दूसरे को समकोण में काटती थीं। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो इस सभ्यता के प्रमुख नगर थे। यहां की इमारतें पक्की ईंटों की बनाई जाती थीं। यह एक ऐसी विशेषता है जो तत्कालीन किसी अन्य सभ्यता में नहीं पाई जाती थी। मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत उसका स्नानागार था। घरों के निर्माण में पत्थर और लकड़ी का भी प्रयोग किया जाता था।
मोहनजोदड़ो से मिली मातृ देवी, नाचती हुई लड़की की धातु की मूर्ति इत्यादि तत्कालीन उत्कृष्ट मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण हैं।
मौर्यकाल:
मौर्यकाल के दौैरान देश में कई शहरों का विकास हुआ। मौर्यकाल भारतीय कलाओं के विकास के दृष्टिकोण से एक युगांतकारी युग था। इस काल के स्मारकों व स्तंभों को भारतीय कला के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है। इस काल के स्थापत्य में लकड़ी का काफी प्रयोग किया जाता था। अशोक के समय से भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग प्रारंभ हो गया था। ऐसा माना जाता है कि अशोक ने ही श्रीनगर (कश्मीर) व ललितपाटन(नेपाल) नामक नगरों की स्थापना की थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने अपने राज्य में कुल 84,000 स्तूपों का निर्माण कराया था। हालांकि इसको अतिश्योक्ति माना जा सकता है। स्थापत्य के दृष्टिकोण से सांची, भारहुत, बोधगया, अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप प्रसिद्ध हैं। अशोक ने 30 से 40 स्तम्भों का निर्माण कराया था। अशोक के समय से ही भारत में बौद्ध स्थापत्य शैली की शुरुआत हुई। इस काल के दौरान गुफाओं, स्तम्भों, स्तूपों और महलों का निर्माण कराया गया। अशोक के स्तम्भों से तत्कालीन भारत के विदेशों से संबंधों का खुलासा होता है। पत्थरों पर पॉलिश करने की कला इस काल में इस स्तर पर पहुँच गई थी कि आज भी अशोक की लाट की पॉलिश शीशे की भांति चमकती है। मौर्यकालीन स्थापत्य व वास्तुकला पर ग्रीक, फारसी और मिस्र संस्कृतियों का पूरी तरह से प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
परखम में मिली यक्ष की मूर्ति, बेसनगर की मूर्ति, रामपुरवा स्तम्भ पर बनी साँड की मूर्ति तथा पटना और दीदारगंज की मूर्तियां विशेष रूप से कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं।
परखम में मिली यक्ष की मूर्ति, बेसनगर की मूर्ति, रामपुरवा स्तम्भ पर बनी साँड की मूर्ति तथा पटना और दीदारगंज की मूर्तियां विशेष रूप से कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं।
शुंग, कुषाण और सतवाहन:
232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु के थोड़े काल पश्चात ही मौर्य वंश का पतन हो गया। इसके बाद उत्तर भारत में शुंग और कुषाण वंशों और दक्षिण में सतवाहन वंश का शासनकाल आया। इस समय के कला स्मारक स्तूप, गुफा मंदिर (चैत्य), विहार, शैलकृत गुफाएं आदि हैं। भारहुत का प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण शुंग काल के दौरान ही पूरा हुआ। इस काल में उड़ीसा में जैनियों ने गुफा मंदिरों का निर्माण कराया। उनके नाम हैं- हाथी गुम्फा, रानी गुम्फा, मंचापुरी गुम्फा, गणेश गुम्फा, जय विजय गुम्फा, अल्कापुरी गुम्फा इत्यादि। अजंता की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी काल के दौरान हुआ। इस काल के गुफा मंदिर काफी विशाल हैं।
इसी काल के दौरान गांधार मूर्तिकला शैली का भी विकास हुआ। इस शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहते हैं। इस शैली का विकास कुषाणों के संरक्षण में हुआ। गांधार शैली के उदाहरण हद्दा व जैलियन से मिलते हैं। गांधार शैली की मूर्तियों में शरीर को यथार्थ व बलिष्ठ दिखाने की कोशिश की गई है। इसी काल के दौरान विकसित एक अन्य शैली-मथुरा शैली गांधार से भिन्न थी। इस शैली में शरीर को पूरी तरह से यथार्थ दिखाने की तो कोशिश नहीं की गई है, लेकिन मुख की आकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति पूरी तरह से झलकती है।
सतवाहन वंश ने गोली, जग्गिहपेटा, भट्टीप्रोलू, गंटासाला, नागार्जुनकोंडा और अमरावती में कई विशाल स्तूपों का निर्माण कराया।
इसी काल के दौरान गांधार मूर्तिकला शैली का भी विकास हुआ। इस शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहते हैं। इस शैली का विकास कुषाणों के संरक्षण में हुआ। गांधार शैली के उदाहरण हद्दा व जैलियन से मिलते हैं। गांधार शैली की मूर्तियों में शरीर को यथार्थ व बलिष्ठ दिखाने की कोशिश की गई है। इसी काल के दौरान विकसित एक अन्य शैली-मथुरा शैली गांधार से भिन्न थी। इस शैली में शरीर को पूरी तरह से यथार्थ दिखाने की तो कोशिश नहीं की गई है, लेकिन मुख की आकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति पूरी तरह से झलकती है।
सतवाहन वंश ने गोली, जग्गिहपेटा, भट्टीप्रोलू, गंटासाला, नागार्जुनकोंडा और अमरावती में कई विशाल स्तूपों का निर्माण कराया।
गुप्तकालीन वास्तु व स्थापत्य:
गुप्तकाल के दौरान स्थापत्य व वास्तु अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस काल के मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर पत्थर एवं ईंटों से किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों के सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झाँसी के पास) और भीतरगांव (कानपुर) हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों से विषय-वस्तु ली गई है। भीतरगांव (कानपुर) का विष्णु मंदिर ईंटों का बना है और नक्काशीदार है।
गुप्तकाल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू-देवताओं से संबंधित हैं। शारीरिक नग्नता को छिपाने के लिए गुप्तकाल के कलाकारों ने वस्त्रों का प्रयोग किया। सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति और सुल्तानगंज में बुद्ध की तांबे की मूर्ति उल्लेखनीय हैं। विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है।
गुप्तकाल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू-देवताओं से संबंधित हैं। शारीरिक नग्नता को छिपाने के लिए गुप्तकाल के कलाकारों ने वस्त्रों का प्रयोग किया। सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति और सुल्तानगंज में बुद्ध की तांबे की मूर्ति उल्लेखनीय हैं। विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है।
चोलकाल:
चोलों ने द्रविड़ शैली को विकसित किया और उसको चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। राजाराज प्रथम द्वारा बनाया गया तंजौर का शिव मंदिर, जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इस काल के दौरान मंदिर के अहाते में गोपुरम नामक विशाल प्रवेश द्वार का निर्माण होने लगा। प्रस्तर मूर्तियों का मानवीकरण चोल मूर्तिकारों की दक्षिण भारतीय कला को महान देन थी। चोल काँस्य मूर्तियों में नटराज की मूर्ति सर्वोपरि है।
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